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*सत्यपाल मलिक की जुबानी : जम्मू-कश्मीर के साथ संवैधानिक फर्जीवाड़े की कहानी*

*सत्यपाल मलिक की जुबानी : जम्मू-कश्मीर के साथ संवैधानिक फर्जीवाड़े की कहानी*

*सत्यपाल मलिक की जुबानी : जम्मू-कश्मीर के साथ संवैधानिक फर्जीवाड़े की कहानी*

 

 

आलेख : राजेंद्र शर्मा

 

जैसाकि अनुमान लगाया जा सकता था, 2018-19 के बहुत ही घटनापूर्ण दिनों में जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल रहे सत्यपाल मलिक के पुलवामा की त्रासदी और जम्मू-कश्मीर राज्य के विभाजित किए जाने तथा उससे राज्य का दर्जा छीनकर केंद्र शासित क्षेत्र बनाए जाने और इसके लिए धारा-370 तथा 35-ए को निरस्त किए जाने और उसी दौरान सामने आए भ्रष्टाचार के दो बड़े मामलों के संबंध में, विशेष रूप से सोशल मीडिया में प्रसारित रहस्योद्घाटनों को, मोदी सरकार ने सबसे बढक़र चुप्पी की बर्फ के नीचे ही दबाने की कोशिश की है। इन रहस्योद्घाटनों का मुख्य धारा के मीडिया में लगभग पूरी तरह से बहिष्कार जैसा ही सुनिश्चित करना भी, चुप्पी की बर्फ के नीचे दबाने की इसी कोशिश का हिस्सा था।

और प्रधानमंत्री तो नहीं, पर उनके अब निर्विवाद रूप से अघोषित नंबर-2, अमित शाह ने कई दिनों के अंतराल के बाद, मलिक के मीडिया साक्षात्कारों पर, कर्नाटक में चुनाव प्रचार के दौरान मजबूरी में जब प्रतिक्रिया की भी, तो उसमें सवालों का जवाब देने के बजाए, सवाल करने वाले की ही नीयत पर सवाल खड़े कर, सवालों को ही अवैध या दुर्भावना प्रेरित ठहराने के, संघ परिवार के उसी जाने-पहचाने तरीके का ही सहारा लिया गया, जिसमें मोदी के राज के पैरोकारों ने असाधारण महारत हासिल कर ली है। शाह ने मलिक की नीयत पर सीधे-सीधे सवाल खड़े करते हुए दावा किया कि उन्होंने, राज्यपाल के पद पर रहते हुए तो, अब जो कह रहे हैं, उसमें से कोई बात नहीं उठायी थी। पता नहीं पद से हटने के बाद, वह किस नीयत से सरकार पर सवाल उठा रहे हैं!

लेकिन, शाह के दुर्भाग्य से, मलिक के खिलाफ ‘‘बदनीयती’’ के उनके इशारों-इशारों में लगाए गए आरोप का झूठ, बड़ी आसानी से मलिक ने इन इशारों के अपने जवाब में साबित कर दिया और मीडिया के एक हिस्से ने हाथ के हाथ उसका सत्यापन भी कर दिया। पुलवामा त्रासदी के पीछे जम्मू-कश्मीर से दिल्ली तक, शासन-प्रशासन की गलतियों या चूकों का हाथ होने की बात, घटना के फौरन बाद की अपनी फौरी प्रतिक्रिया में कुछ चैनलों से मलिक उसी शाम को कह चुके थे और उसके साक्ष्य सामने आने में जरा-सी भी देर नहीं लगी। अलबत्ता, प्रधानमंत्री के फोन पर ‘‘तुम अभी चुप रहो’’ का आदेश देने और प्रधानमंत्री के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार द्वारा इस आदेशनुमा-सलाह की पुष्टि किए जाने के बाद, राज्यपाल की हैसियत से सत्यपाल मलिक ने भी, इस मामले में आगे ‘‘चुप’’ रहना ही अपने लिए उपयुक्त समझा लगता है।

इसके साथ ही, इसी बीच दैनिक भास्कर तथा इंडियन एक्सप्रैस की दो पुरानी, पुलवामा की घटना के फौरन बाद की रिपोर्टों ने यह याद दिला दिया कि घटना के फौरन बाद ही यह सच सामने आ गया था कि पुलवामा हमले से बचा जा सकता था, बशर्ते छुट्टियों से लौटने के बाद जम्मू में फंसे करीब ढ़ाई हजार जवानों को सडक़ काफिले के बजाए, हवाई मार्ग से श्रीनगर पहुंचाए जाने की सीआरपीएफ की मांग को, स्वीकार कर लिया गया होता। भास्कर की रिपोर्ट में विस्तार से इसकी चर्चा थी कि किस तरह, इस हवाई मार्ग की सामान्यत: हर छ: महीने पर बढ़ाई जाती रही इजाजत, गृहमंत्रालय की नौकरशाही ने किसी कारण से रोके रखी थी और सीआरपीएफ द्वारा गृहमंत्रालय को हवाई मार्ग से अपने जवानों को ले जाने की इजाजत की चिट्ठी भेजने के बाद, चार महीने तक उसका जवाब तक नहीं आया था। हार कर सीआरपीएफ को सडक़ काफिले के जरिए अपने जवानों को भेजना पड़ा और उसका नतीजा सबने देखा। लेकिन, तब इस तमाम सचाई को, पुलवामा-बालाकोट के बहाने मोदी राज के राष्ट्रवादी पाखंड के अति-प्रचार से दबा दिया गया।

बहरहाल, सत्तापक्ष की ओर से प्रतिक्रिया अमित शाह के जवाबी हमले तक ही नहीं रुकी। मलिक ने अपने लंबे साक्षात्कार के दौरान, जम्मू-कश्मीर में अपने राज्यपाल रहते हुए, दो संदिग्ध सौदों की भी चर्चा की थी, जिनमें डेढ़-डेढ़ सौ करोड़ रुपये की रिश्वत कमाए जाने की बात उन तक पहुंची थी या पहुंंचायी गयी थी और उनमें से एक सौदे में, जो अनिल अंबानी की कंपनी के साथ, राज्य सरकार द्वारा सरकारी कर्मचारियों को उनके अंशदान के आधार पर स्वास्थ्य बीमा मुहैया कराने के लिए हो रहा था, आरएसएस व भाजपा के एक प्रमुख नेता के विशेष दिलचस्पी लेने की बात, उन्होंने कही थी। वास्तव में मलिक यह मामला किसान आंदोलन के दौरान, अपने सीकर के एक सार्वजनिक भाषण में पहले भी उठा चुके थे। बहरहाल, अब उन्होंने संबंधित ताकतवर आरएसएस-भाजपा नेता का नाम भी ले दिया --राम माधव। उक्त दोनों सौदों को नामंजूर करते हुए, मलिक ने राज्यपाल के नाते आधिकारिक रूप से इस सौदों में गड़बड़ी की शिकायत दर्ज भी करायी थी।

बहरहाल, सत्यपाल मलिक के हालिया साक्षात्कारों के बाद, शाह के जवाबी साक्षात्कार के अलावा, एक प्रतिक्रिया तो राम माधव की ओर से कथित रूप से निजी हैसियत से आयी, मानहानि के नोटिस के रूप में। दूसरी प्रतिक्रिया, सीबीआइ की ओर से आयी, जिसने मलिक द्वारा राज्यपाल की हैसियत से की गयी रिलायंस ग्रुप से जुड़े कर्मचारी स्वास्थ्य बीमा के मामले में शिकायत के संबंध में, 2021 में उनसे पहली बार जानकारी हासिल करने के लिए बयान लेने के बाद, अब अचानक फिर सक्रियता दिखाते हुए, मलिक को सीबीआइ में हाजिरी के लिए सम्मन भेज दिए। बेशक, इस पर चौतरफा शोर मचने के बाद, सीबीआइ की ओर से बाद में यह स्पष्टीकरण जरूर दिया गया कि उसने तो मलिक को, उनकी सुविधा के समय पर, उनके घर पर ही जाकर जानकारी लेने के लिए नोटिस दिया था; फिर भी मोदी-शाह ही सीबीआइ के लंबे समय तक इस मामले की फाइल पर सोते रहने के बाद, अचानक मलिक के ताजा बयानों के बाद उसके सक्रिय होने से संदेह तो पैदा होते ही हैं।

इसके ऊपर से, सीधे अमित शाह द्वारा नियंत्रित दिल्ली पुलिस ने, मलिक के घर पर उनके लिए समर्थन जताने के लिए इकट्ठे हुए, अनेक खाप पंचायतों के नेताओं के लिए खाने की, उनके घर के निकट स्थित मोहल्ले के पार्क में व्यवस्था किए जाने पर, बड़ी तत्परता से कार्रवाई की और कई खाप नेताओं को पुलिस थानों में पहुंचा दिया। यह दूसरी बात है कि इसके विरोध में सत्यपाल मलिक के भी थाने में जाकर जम जाने के बाद, पुलिस को इसकी सफाई के साथ सब को जाने देना पड़ा कि उसने तो, किसी को भी गिरफ्तार नहीं किया था! वैसे भ्रष्टाचार केे उक्त प्रकरणों और बाद में गोवा के  राज्यपाल के पद पर रहते हुए भी उनके सामने आए ऐसे ही अन्य प्रकरणों और उन प्रकरणों के अपने संज्ञान में लाए जाने के बाद, प्रधानमंत्री मोदी की प्रतिक्रिया के आधार पर, मलिक द्वारा निकाला गया यह नतीजा कम से कम गौरतलब जरूर है कि ‘नरेंद्र मोदी को भ्रष्टाचार से कोई खास नफरत नहीं है’!

बहरहाल, इस टिप्पणी को खत्म करने से पहले, सत्यपाल मलिक के ही ताजा साक्षात्कारों से उठने वाले एक और बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दे की ओर हम ध्यान खींचना चाहेंगे, जिसे पुलवामा त्रासदी और कश्मीर में मोदी-शाह की केंद्र सरकार के कमोबेश प्रत्यक्ष राज में भारी भ्रष्टाचार के मामलों ने, एक तरह से धकियाकर चर्चा से बाहर ही कर दिया है। विशेष रूप से करण थापर के साथ 'द वायर' के लिए अपनी करीब सवा घंटे लंबी बातचीत में, सत्यपाल मलिक ने इस संवेदनशील सीमावर्ती राज्य के सिलसिले में मोदी राज के बड़े फैसलों, खासतौर पर भाजपा के मेहबूबा मुफ्ती के नेतृत्ववाली गठजोड़ सरकार से भाजपा के अपना समर्थन वापस लेने के बाद, राज्यपाल शासन के तौर-तरीकों, शासन के प्रयत्नों की दशा-दिशा, गैर-भाजपा पार्टियों के गठबंधन सरकार बनाने की पेशकश करने के बावजूद, बहुमत होते हुए भी उसकी सरकार नहीं बनने दिए जाने तथा उसकी जगह विधानसभा ही भंग कर दिए जाने और बाद में धारा-370 व 35-ए को निरस्त कर के राज्य को दो टुकड़ों में बांटे जाने तथा उसका राज्य का दर्जा खत्म कर, उसे केंद्र शासित क्षेत्र बनाए जाने के फैसले, आदि के संबंध काफी कुछ बताया है। इसमें काफी कुछ आत्मश्लाघापूर्ण तथा राज्यपाल के रूप में अपने किए को तथा अपने नजरिए को सही ठहराने वाला भी है, खासतौर पर गैर-भाजपा गठबंधन सरकार बनवाने की जगह, राज्य विधानसभा ही भंग करने का उनका विवादास्पद फैसला। लेकिन, यह सब अलग से विस्तृत बहस और आलोचनात्मक आकलन की मांग करता है, जो यहां संभव नहीं है। बहरहाल, यहां हम इसी साक्षात्कार में मलिक द्वारा दी गयी एक बहुत ही चौंकाने वाली जानकारी की ओर जरूर ध्यान खींचना चाहते हैं, जो सबसे बढक़र उस संवैधानिक धोखाधड़ी को उजागर करती है, जिसके जरिए इस संवेदनशील सीमावर्ती राज्य के विशेष दर्जे को ही नहीं, खुद राज्य को भी खत्म करने के आरएसएस के पुराने, घोर सांप्रदायिक एजेंडा को, अंजाम दिया गया है।

सत्यपाल मलिक बताते हैं कि 5 अगस्त 2019 को, उस समय चल रही संसद में उक्त निर्णयों से संबंधित प्रस्ताव रोडरोल करने से पहले, विधानसभा भंग हो चुकी होने के चलते, जम्मू-कश्मीर की जनता के एकमात्र प्रतिनिधि के नाते, उनसे कोई परामर्श करना तो दूर, उन्हें तो ऐसा कुछ होने की कोई भनक तक नहीं लगने दी गयी थी। अलबत्ता, ऐसा करना आरएसएस का एजेंडा होने के कारण, जब ऐसा किया गया, उन्हें इससे कोई अचरज नहीं हुआ। बहरहाल, 3 अगस्त की शाम जब विपक्षी पार्टियों के नेताओं ने, दिल्ली से आ रही खबरों के आधार पर उनसे मुलाकात कर ऐसा कुछ होने की आशंकाएं जतायी थीं, मलिक ने पूरी ईमानदारी से उन्हें आश्वस्त किया था कि ऐसा कुछ नहीं होगा, वर्ना उन्हें पता होता। उसके बाद, 4 अगस्त की शाम को उनके पास गृहमंत्री, अमित शाह का फोन आया कि सुबह तुम्हें एक प्रस्ताव मिलेगा, उसे 11 बजे से पहले अनुमोदन कर के भिजवा देना, संसद में पास कराना है।

इस तरह, राज्य की जनता से किसी तरह का परामर्श करना तो दूर, खुद केंद्र सरकार द्वारा बैठाए गवर्नर तक से, विधानसभा भंग होने की सूरत में राज्य के इकलौते प्रतिनिधि की हैसियत से, न कोई चर्चा की गयी और न उसे किसी तरह की चर्चा करने के लिए कोई समय ही दिया गया। केंद्र का प्रतिनिधि होने के चलते, उससे बस ठप्पा लगवा लिया गया और उसी को ‘राज्य की जनता का अनुमोदन’ बताकर, धारा-370 व 35-ए को निरस्त कर दिया गया और राज्य को बांट दिया गया और राज्य का दर्जा छीनकर केंद्र द्वारा सीधे प्रशासित, केंद्र शासित क्षेत्र बना दिया गया। और यह सब तब किया गया, जबकि जम्मू-कश्मीर के भारत के विलय का आधार बनाने वाली धारा-370 में, इसका स्पष्ट प्रावधान था कि उसे राज्य की संविधान सभा के अनुमोदन से ही भंग किया जा सकता था, उसके बिना नहीं। संविधान सभा की जगह, विधानसभा, विधानसभा की भी जगह राज्यपाल और राज्यपाल तक के लिए विचार करने तक को कोई समय नहीं!

इस तरह, जम्मू-कश्मीर के साथ आरएसएस का सांप्रदायिक बदला लेने के लिए, मोदी सरकार ने भारत के संविधान के साथ खुल्लमखुल्ला फर्जीवाड़ा किया है। यह फर्जीवाड़ा, जम्मू-कश्मीर समेत भारत की अखंडता को कमजोर ही  कर रहा है। सुप्रीम कोर्ट इसके खिलाफ कानूनी चुनौतियों पर विचार को लटकाए रखकर, जितने समय तक इस फर्जीवाड़े को चलने देता है, मौजूदा सरकार के साथ ही वह भी, देश की अखंडता को कमजोर करने में ही योग दे रहा होगा।                                                  

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक  'लोकलहर' के संपादक हैं

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